अज़ीम मुहक्किक मुफक्किर और अल्लामा
मैं यह दावा नहीं करना चाहता कि मेरा हाफिजा कमजोर है लेकिन इसके बावजूद मैं दसों ऐसी आयात पे दर पे पढ़ सकता हूं जिन का तअल्लुक अफू और दर गुजर, मुकालमा और अपना दिल दूसरों के लिए खोल देने से मुतअल्लिक हैं। इससे पता चलता है कि इस्लाम सब को अपने अंदर समो सकता है और यह कि यह आलमगीर मज़हब है।
जैसा मिसाल के तौर पर कुरआन कहता है “सुलह कर लेना ही बेहतर है (अलनिशाः128) इस आयत से यह जाहिर नहीं होता कि खास वाकिया, मानी या फ्रेम वर्क के साथ मुखतस है। यह एक उमूमी कायदा है। मजीद बरां क्या “इस्लाम” को मसदर ऐसा नहीं कि इस का मतलब सही होना। सर तसलीम खम करना, अमन, तहफ्फुज और एतमाद होता है? इस वजह से हमारे लिए मुम्किन नहीं कि उन खुसूसियात को कायम किए और एखतेयार किये बगैर सच्चे मुसलमान बन सकें। उसके साथ साथ उस मुकद्दस नाम के मतलब को समझना, एक ऐसी माहियत है जिस से हर एक को गले लगाना और हर चीज को मोहब्बत के साथ देखना आसान हो जाता है। लेकिन अगर हम इस मजमून को इस जज्बे से न लें तो फिर हमारे मुतअल्लिक यह ख्याल करना कि हमने इस्लाम को समझ लिया है कि इस की दावत दे रहे हैं या उस की नुमाइंदगी कर रहे हैं सब गलत होगा।
उन कवायद के अलावा जो अमन और तहफ्फुज की जमानत देते हैं कुरआन में ऐसी आयात मौजूद हैं जिन में जराएम पेशा लोगों और लाकानूनियत और दहशत फैलाने वाले लोगों के साथ निपटने का तरीका भी बताया गया है। ऐसे लोगों के लिए सजाएं, पाबंदियां और मकाफात भी मौजूद हैं। लेकिन उन आयात और आहादीश के मजमून या उनके नफाज के मुतअल्लिक अगर हम उन हालात को जायजा न लें, अगर हम असल को तफसील से या मकसद को मुतालबे से अलग न करें, अगर हम आयात नजूल से कब्ल और बाद के हालात के बगैर तज्जिया करें तो फिर हम गलत नतीजा पर ही पहुंचेगे।
मैं कह सकता हूँ और कहता भी हूँ कि मोहब्बत, अमन, दरगुजर, और तहम्मुल इस्लाम की बुनियादी चीजें हैं। बाकी सब वाकियाती हैं। लेकिन फिर भी जरूरत है कि मुसलमानों के इब्तिदाई अहम मसायल पर उनकी अहमियत के मुताबिक तवज्जा दी जाए। मिसाल के तौर पर जब खुदाने मुहब्बत को अहमियत दी और जब इंसान को इस ने बताया है कि वह उन लोगों से मोहब्बत करता है जो उससे मोहब्बत करते हैं और जब उस ने अपने सब से ज्यादा प्यार बंदे को “हबीबुल्लाह” का लकब दिया। वह खुद खुदा से प्यार करता है और खुदा भी उस से प्यार करता है। तो फिर हमें इसको बुनियादी उसूल के तौर पर लेना चाहिए। मुनाफिकों और काफिरों के खिलाफ जिहाद करना सानवी चीजें हैं जो मखसूस हालात की वजह से जरूरी हो जाती हैं कवायद कुछ वजूहात और हालात की बुनियाद पर कायम होते हैं जब वह वजूहात न रहे तो यह कवायद भी नाफिजुल अमल नहीं रहते। सजाये मौत, मुल्क बदरी और जंग जैसे कवायद कुछ मखसूस वजूहात के साथ मनसलक हैं। यहां जो बात जरूरी है वह यह है कि इस्लाम के कवायद को नरम शब्दों और मुलायम रवैये से दूसरों तक पहुंचाया जाए। उसी तरह अमन, इंसाफ और पायदारी इस्लाम में जरूरी है। जबकि जंग जो हालात की जमनी पैदावार होते हैं वह कुछ शरायत पर मुंहसिर होते हैं। बदकिस्मती से जो इस माहियत से सिर्फ नजर करे सानवी कवायद व जवाबित की वजूहात न जाने ओर जो (जाहिरियों की तरह कुरआन को खाम तरीके से पढ़ते हुए) तशद्दुद पसंदी पर जोर दे उस ने उन कवायद को गोया समझा ही नहीं न ही उनकी वजूहात व जराय को जाना और न इस्लाम को समझा है।
जब मुतअल्लका वजूहात जाहिर होती है तो वह कवायद जो उन की वजह से जरूरी करार पाते हैं वह फआल जो जाते हैं मिसाल के तौर पर जब बैरूनी दुश्मन हम पर हमला करेगा तो जाहिर है हम कोने में बैठकर हमलावरों को तवज्जा नहीं कहेंगे “कितना अच्छा हुआ तुम आ गये”
इस दुनिया को देखें जिस में हम रह रहे हैं। एक अखबार में ताजातरीन शाये शुदा रिपोर्ट के मुताबिक इस वक्त दुनिया में 56 जगहों में खूंरेज जंगे” हो रही हैं। अभी भी आंसू और लहू के सैलाब दुनियां के बहुत से खूतूतों में बह रहे हैं। उनमें से बहुत सी जंगो में कुछ ममालिक जो जमहूरियत और इंसानी हुकूक की बात करते हैं वह दोनों तरफ मौजूद हैं ऐसी सूरत में जंग को इंकार है उस इस वजह से जब कोई हमारे जमहूरी हुकूक और आजादियों को छोड़ता है तो हमें अपना दिफा करना होगा और जब जरूरत पड़े तो लड़ना होगा। लेकिन जैसे मैंने पहले कहा यह सानवी चीजें हैं इस्लाम की बुनियाद अमन और इंसानियत को मोहब्बत से गले लगाने पर है।
मुशतरका चीजों की तरफ दावत
मुकालमा पर आने और जारी रहने को दूसरा पहलू यह है कि हम दिलचस्पी के उन उमूर का जो दूसरे लोगों के मध्य मुशतरका हैं बढ़ाएं। हमारा मुखातिब चाहिए यहूदी हो या नसरानी, यही तरीका अपनाना चाहिए और उन मसायल से जो हमारे मध्य नफरका पैदा करें बचना चाहिए। जैसा कि मिसाल के तौर पर कुरआन अहल किताब से मुखातिब होता है तो कहता है। “ये अहल किताब आओ उन मुशतरका बातों की तरफ जो हमारे और तुम्हारे मध्य मुशतरक है।” और वह बातें क्या हैं? “कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें” इस लिए कि हकीकत आजादी यह है कि किसी दूसरे की गुलामी से निकला जाया जाए। जब कोई खुदा का बंदा बन जाता है तो वह गैर को बंदा बनने से बच जाता है। तो आओ इस मामले में एक हो जाएं। और आगे है “हम में से बाज दूसरे बाज को अपना रब न बनायें (आल इमरान: 64) यहां मुराद यह है कि हमारा इब्तिेदाई मुशतरका नुकता है कि खुदा पर इमान लाएं। यहां अभी आप तक हुजूर (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) की रिसालत को जिक्र नहीं है। दूसरे आयत में है: “इमान वालों से कह दो, उन लोगों को माफ कर दें जिन्हें आखिरत की उम्मीद नहीं है।” यहां यह कहा जा रहा है कि जो लोग आखिरत या बआस बादलमौत पर यकीन नहीं रखते उनको माफ कर दिया जाए, इस लिए खुदा बंदे के अमल के मुताबिक जजा देता है (अलजासिया: 14) यानी अगर किसी को सजा देनी है तो खुदा ने देनी है और उस के सिवा यह मामला किसी और का नहीं है।
इस मामले पर एक और वाजे मिसाल खूद हुजूर (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) की जात अतहर है जिन्हें अल्लाह तआला ने कुछ मुजरिम कुफ्फार के खिलाफ बद दुआ करने पर हल्की तंबीह की थी। इसलिए रवायत के मुताबिक अरब बद्दुओं के एक कबीले ने आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) से दरख्वास्त की कि इनके यहा कुरआन पढ़ाने के लिए कुछ असातजा भेजे जाएं।
आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) ने सहाबा को भेजा, लेकिन बद्दुओं ने घात लगा कर उन्हें बेदर्दी से बेअर मवूना (जो एक कुआं था) के पास शहीद कर दिया। इस वाकिया के बाद रसूलुल्लाह (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) ने पर अजाब भेजने की दरख्वास्त की तो अल्लाह तआला ने निम्नलिखित आयात नाजिल फरमायी।
“आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) को उन पर कोई एखतियार नहीं, चाहे वह (खुदा) उनको माफ कर दे या उनको अजाब दे इस लिए कि वह हद से तजावुज करने वाले हैं।” (आल इमरानः 127-128)
आज पुरी दुनिया में लोगों को मज़हब से दिलचस्पी पैदा हो रही है। मेरी राय में मज़हब की सही अकदार के साथ नुमाइंदगी की मामले को आज जो अहमियत है उस से पहले कभी न थी। आज ऐसे लोगों की जरूरत है जो नेक, खुद तमुल्क, होशियार, मुखलिस और साफ दिल हों। ऐसे लोग जो छुपाने वाले या मुतकब्बिराना हों और दूसरों को अपनी जात पर तरजीह देने वाले हों। जिन को दुनियावी अगराज न हों। अगर मुआशरा इन सिफात के हामिल लोगों को तालीम दे दे तो उसका मतलब यह होगा कि एक बहुत बेहतर मुस्तकबिल आने वाला है।
अहले किताब के साथ मुकालमा
मोमिनों को रवैयों को इंहेसार उनके इमान के दर्जे पर होता है। मेरा इमान है कि अगर सही तरीका से पैगाम दिया जाए तो मुकालमा से हम आहंग माहौल, हमारे मुल्क में भी और बाहर भी जल्द जाहिर हो जाएगा। इस लिए बाकी मजामीन की तरह हमें इस मसले को ऐसे देखना चाहिए। जिसे कुरआन मजीद और सुन्नत रसूल में बयान किया गया है। खुदा कुरआन में फरमाता हैः
“यह वह किताब है जिसमें कोई शक नहीं है। यह हिदायत है मुतकी लोगों के लिए” (अलबकराः2)
फिर उसके बाद उन मुतकी लोगों की सिफात इस तरह बयान फरमायीः
“वह लोग है जो गैब पर इमान लाते हैं। और नमाज कायम करते हैं, और हमारे दिये हुए में से खर्च करते हैं। और वह लोग जो आप (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) पर उतरा है और जो आप से पहले उतरा सब पर इमान रखते हैं और आखिरत के दिन पर यकीन रखते हैं” (अलबकरा: 3, 4)
बड़े नरम और मज़हब अंदाज से कुरआन पहले अंबिया और उनकी किताबों पर इमान लाने की दावत दे रहा है। यह बात कुरआन के बिल्कुल शुरू में जिक्र की गयी है जिस से यह मेरे लिए इस वक्त बड़ी अहमियत की हामिल हो जाती है, जब मैं ईसाईयों और यहूदियों के साथ मुकालमा की बात करता हुं। दूसरी आयत में खुदा का हुक्म है।
“और उन अहले किताब से बहस करो तो अच्छे तरीके से करो” (अलअंकबूवतद: 46)
इस आयत में कुरआन हमें सोचने और बात करने के दौरान मुनासिब रवैया के एखतियार करने को तरीका बता रहा है। बदीउलजमान ने इसा बात को वाजे करते हुए बहुत ही अहम बात की है। “जो लोग बातचीत में अपने दुश्मनों की शिकस्त पर खुश होते है उनमें कोई रहम नहीं है।” वह इस की वजह यह बताते हैं “आप किसी को जेर करके कुछ हासिल नहीं करते अगर आप हार जाएं और दूसरा जीत जाए तो गोया आप ने अपनी गलती को सही कर दिया”
दूसरों से मुबाहसा, खुदी की खातिर न करना चाहिए बल्कि सच को अयां करने के लिए करना चाहिए। अगर हम सियासी मुबाहिसों को देखें तो लगता है कि उसका मकसद सिर्फ दूसरों को नीचा दिखाने है उसका कोई मुसबत नतीजा नहीं होता। जिन नजरियात मुबाहिसों को आशकार करना होता है, उन में बाहमी इफहाम व तफहीम, इज्जत, इंसाफ के साथ वफादारी जिसे उसूल को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए। कुरआन की रोशनी में मुबाहिसा उसी वक्त हो सकता है जब उसके लिए फिजा साजगार हो।
दर्ज बाला आयात (अंकबूवतद: 64) को मजीद पढ़ने से इस शर्त को पता चलता हैः “मगर उन लोगों के साथ (नरमी वाला रवैया न अपनायें) जो कुफर के साथ जालिम भी हों” जालिम की तशरीह एक और जगह पर इस तरह की गयी हैः “यह वह लोग है जो इमान लाये और अपने इमान के साथ जालिम को सामिल नहीं किया: वही लोग महफूज है और यही लोग हिदायत पर हैं” (अलइंआम: 82)
इस मजकूरा आयत की हुजूर (सल्लल्लाह अलैह वसल्लम) ने तशरीह इस तरह फरमायी कि खुदा के साथ शिर्क करना कुफर करने के मुतरादिफ है। इस लियाज से कि उसने कायनात की बेहुरमती की है। सब से बरा जुल्म यह है कि अपने जमीर की इस आवाज को जो खुदा को इजहार करती है, दबा दिया जाए। जुल्म का यह भी मतलब कि दूसरों के साथ ज्यादती किया जाए, उनको दबाया जाए, और अपने नजरियात उनपर थोपें जाएं। इस लिहाज से जुल्म के दो मतलब हुए शिर्क और कुफर दोनों बड़े गुनाह हैं। ऊपर दी गयी तशरीह के मुताबिक जरूरी नहीं कि हर मुश्रिक या काफिर बराई का मुरतकिब है हो। लेकिन वह लोग जो दूसरों को दबाएं। जो बुराईयां करने के लिए अपन आपको तैयार करें। और जो दूसरों के हुकूक और खुदा के इंसाफ को पामाल करें, उनका कानून के दायरे में रहते हुए मुकाबला करना चाहिए।
इन अहले किताब के साथ मामला करते हुए जो ज्यादती नहीं करते हमें कोई एखतियार नहीं कि उन के साथ बदसूलूकी करें या उन की बरबादी का सोचें। इस तरह को रवैया गैर इस्लामी है और इस्लाम उसूल व जवाबित के खिलाफ है। एक और जगह पर कुरआन में है।
“खुदा तुम्हें उन लोगों के बारे में जिन्होंने आप से दीन के मुतअल्लिक जंग नहीं की न आप के घर से निकाला, इस बात से नहीं रोकता की उनके साथ नेकी करो और इंसाफ वाला मामला करो”। (अलमुतहंत: 8)
यह आयत एक महाजिर सहाबिया हजरत इस्मा (रजि.) के बारे में नाजिल हुई जिन्होंने आप से पूछा कि उनकी मुशरिक मां उन्हें मिलने मक्का से आ रही है, तो क्या मैं उनसे मिलों या नहीं? इस आयत से पता चलता है कि मुलाकात किल्कुल काबिले कुबूल है और यह कि इस्मा को अपनी वालिदा के साथ नरम दिल रहना चाहिए। मैं यह बात आप लोगों पर छोड़ता हूँ कि बताएं कि उन लोगों के साथ जो खुदा, कयामत और रसूलों पर इमान रखते हों कैसा मामला रखना चाहिए।
कुरआन की सैकड़ों आयात समाजी मुकालमा और तहम्मुल के मुतअल्लिक है लेकिन हमें अपनी तहम्मुल में तवाजुन कायम रखना चाहिए। कोबरा सांप के साथ रहम का मतलब है उन लोगों के साथ जिन्होंने इसने डसा है। यह दावा करना कि “इंसान परस्ती” खुदा की रहमत से भी ज्यादा मेहरबान है यह मेहरबानी के साथ न इंसाफी है और दूसरों के हुकूक की पामाली है। हकीकत में बाज जगहों को छोड़ कर कुरआन और सुन्नत हमेशा तहम्मुल की बात करते हैं। इस तहम्मुल के सायबान को साया न सिर्फ अहले किताब को भी शामिल है बल्कि एक तरह से सब लोगों को मुहीत है।
खेल और मुकालमा का तरीका
यह एक हकीकत है कि जमहूरियत, अमन, मुकालमा और तहम्मुल के नजरियात फैल चुके हैं। और दुनिया भर में मवासिलात राबतों के बढ़ने के साथ साथ उन चीजों को संजीदगी से लिया जा रहा है। उन नजरियात को मजीद को मजीद फैलाने और हर एक को उन से मुसतफीज होने के लिए हर एक पर इंफेरादी और इजतेमायी जिम्मेदारी आयद होती है।
इस हवाले से एक अहम जरिया ताकत और मवासिलात को तरीका, जो बगैर किसी शक के मुआशरे को मुआशिरे को मुतासिर कर सकता है, वह खेल है। खेलों के प्रोग्राम बल्कि हर चीज जो खेल से मुतअल्लिक हो, वह दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक फौरन फैल जाती है यकीनन नजरियात को फैलाने के और भी बहुत से तरीके हैं लेकिन यह जरिया एखतियार कर के हम मुकालमा और तहम्मुल के नजरियात फैलाने में मदद ले सकते हैं। ऐसे नजरियात जो हमारे इमान में इतने जरूरी हैं कि वह हर एक को बताये जाएं। उनको उन जराए से हमारे बारे अपने लोगों और इंसानियत के फायदे के लिए फैलाया जा सकता है।
मिसाल के तौर पर फुटबाल के मैच में सर्फ होने वाले 90 मिनट बड़े अच्चे तरीके से इस्तेमाल किये जा सकते हैं जहां एक तरफ, एतराफ में बैठे नाजरीन खेल से लुत्फ अंदोज होंगे, वहां उनको अच्छी बातें भी बगैर एतराज के दिखायी जा सकती हैं। इन 90 मिनट को इस तरह इस्तेमाल करना जरूरी है। मिसाल के तोर पर जैसा कि पहले मैचों में होता था कि फातेहीन शिकस्त खूर्दा खिलाड़ियों के करीब जाकर गले लगाते हैं। हाथ मिलाते और खेल को जज्बा बाकी लोगों में मुंतकिल करते थे। इस तरह को रवैया शायकीन से भी करवाया जा सकता है। इससे उन लोगों को अहम सबक मिल सकता है जो बेंच जलाते, दूसरों को गालियां निकालते, हत्ता कि मुसल्लह होकर दूसरों पर हमला करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। उनके लिए जरूरी है कि खेल के शोबे को ऐसी रोशनी में देखें जिस से अच्छे एहसासात व ख्यालात पैदा हों। आज के शायकीन इस हकीकत को अच्छा नहीं समझते की खिलाड़ी स्टेडियम से निकलने से पहले एक दूसरे से हाथ मिलाएं लेकिन एक वक्त ऐसा आएगा जब खिलाड़ी, स्टेडियम से नफरत और किना परवरी के तोड़ या कम से कम बे असर कर देंगे। इस वक्त दुनिया इस लम्हे को शिद्दत से इंतेजार कर रही है।
अंदरूनी और बैरूनी दोनों सतह पर कुछ लोग तसादुम चाहते हैं और उन्होंने तसादुम का माहौल पैदा कर दिया है। वह मुकालमा या इंसानी रिश्तों में बेहतरी नहीं चाहते। इस वजह से हमें बड़ी एहतियात से चलना होगा। हर काम में कुछ मानवियत होनी चाहिए। खुलूस की तलब होनी चाहिए और अकलियत और अच्छा फैसला हमारी तरजीह होनी चाहिए। इस के अलावा हर शोबे को इस का जरूरी मकाम मिलना चाहिए और उसे उसी तरह मुनासिब रवैया अपनाना चाहिए। मस्जिद का इमाम तो अपनी आवाज तो अपनी आवाज उठा रहा है लेकिन फिल्मी सितारा, अदाकार, अदीब इस तरह काम नहीं कर रहा है। एक अदाकार की तवज्जा अपनी जिस्मानी जबान और अदाकारी की सलाहितें पर मरकूज है, जबकि अदीब लिखने के अंदाज और नजरियात कर कलमबंद करके काम करने में मजरूफ है इसको उसी तरह होना चाहिए वरना पैगाम को असर और उसकी तासीर धीरे धीरे खत्म हो जाएगी और उसमें कोई फायदा न रहेगा। यह चीज खेल के लिए भी है एक एथलीट को अपने सलाहियतें कामयाबी, अच्छे सुलूक और मसाली तर्ज हयात से यहां करनी चाहिए।
बद किस्मती से आज कुछ अकदार की अहमियत को अंदाजा नहीं किया जाता। लोगों को मज़हब की, और उस अमन व तहफ्फुज की जो मज़हब सिखाता है और माबादल मौत जमानत देता है बनिसबत रोटी पानी से ज्यादा जरूरी है। मुझे यकीन है कि जब अच्छी तरह वाजे हो जाएंगे। तो इस मामले में इब्हाम खत्म हो जाएंगे। दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो इस्लाम के नाम पर बहुत कुछ करना चाहते है, लेकिन जब अहम मौजू को खाम तरीके से देखा जाता है तो बजाए मुहब्बत के नफरत पैदा हो जाता है और लोगों के मध्य गैर हल शुदा मसायल नजर आना शुरू हो जाते है। लेकिन जिस चीज की तवक्को की जा रही है और जिसकी जरूरत है वह इस्लाम है, जिसे लोगों के बीच पुल या रास्ता बनना है और ऐसे अवामिल पैदा करने हैं जिन से आपस के मसायल खत्म हों।
अगर हमने अपने उन लोगों को जवाब न दिया जो अपने हाथ फैलाये, मोहब्बत और इज्जत का इजहार करना चाहते हैं तो हम गैर महबूब हो जाएंगे। असल में हम कुछ न पसंदीदा मनफी रूझानात को जन्म देते हैं। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि समाजी मुकालमा और तहमील में एक अहम आमिल की तरह खेल को भी इस्तेमाल किया जा सकता है बशर्ते कि सोच समझ कर अच्छे अंदाज में किया जाए।
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